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तिष्ठा॒ हरी॒ रथ॒ आ यु॒ज्यमा॑ना या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ अच्छ॑। पिबा॒स्यन्धो॑ अ॒भिसृ॑ष्टो अ॒स्मे इन्द्र॒ स्वाहा॑ ररि॒मा ते॒ मदा॑य॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tiṣṭhā harī ratha ā yujyamānā yāhi vāyur na niyuto no accha | pibāsy andho abhisṛṣṭo asme indra svāhā rarimā te madāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तिष्ठ॑। हरी॒ इति॑। रथे॑। आ। यु॒ज्यमा॑ना। या॒हि। वा॒युः। न। नि॒ऽयुतः॑। नः॒। अच्छ॑। पिबा॑सि। अन्धः॑। अ॒भिऽसृ॑ष्टः। अ॒स्मे इति॑। इन्द्र॑। स्वाहा॑। र॒रि॒म। ते॒। मदा॑य॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:35» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले पैंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त राजन् ! आप जिस (रथे) रथ में (युज्यमाना) जुड़े हुए (हरी) घोड़ों के सदृश जल और अग्नि वर्त्तमान हैं उस रथ में (आ) सब प्रकार (तिष्ठ) वर्त्तमान हूजिये इससे (वायुः) पवन के (न) तुल्यः (नियुतः) श्रेष्ठ पुरुषों के साथ मिले और दुष्ट पुरुषों से अनमिले (नः) हम लोगों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (याहि) प्राप्त हूजिये और (अभिसृष्टः) सन्मुख प्रेरित होता हुआ जन (ते) आपके लिये (अस्मे) हमारे निकट से (अन्धः) उत्तम प्रकार संस्कार किये हुए अन्न को (मदाय) आनन्द के अर्थ (ररिम) देवैं उसका (स्वाहा) सत्य वाणी से (पिबसि) पान कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों से चलनेवाले रथ पर चढ़ के अन्य-अन्य देशों को वायु के सदृश जाते हैं, वे बहुत भक्षण भोजन करने पीने और चूषने योग्य पदार्थों को प्राप्त होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह।

अन्वय:

हे इन्द्र राजँस्त्वं यस्मिन्रथे युज्यमाना हरी इव जलाग्नी वर्त्तेते तस्मिन्नातिष्ठ तेन वायुर्न नियुतो नोऽस्मानच्छ याहि। अभिसृष्टः सँस्तेऽस्मे यदन्धो मदाय ररिम तत्स्वाहा पिबासि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तिष्ठ)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हरी) अश्वौ (रथे) (आ) समन्तात् (युज्यमाना) संयुक्तौ (याहि) गच्छ (वायुः) पवनः (न) इव (नियुतः) श्रेष्ठैर्मिश्रितान् दुष्टैर्वियुक्तान् (नः) अस्मान् (अच्छ) सम्यक् (पिबासि) पिबेः (अन्धः) सुसंस्कृतमन्नम् (अभिसृष्टः) अभिमुख्येन प्रेरितः (अस्मे) अस्मासु (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (स्वाहा) सत्यया वाचा (ररिम) दद्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (ते) तुभ्यम् (मदाय) आनन्दाय ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अग्न्यादिपदार्थचालिरथे स्थित्वा देशान्तरं वायुवद्गच्छन्ति ते पुष्कलानि भक्ष्यभोज्यपेयचूष्यानि प्राप्नुवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी इत्यादी पदार्थ व घोड्याच्या दृष्टान्ताचा उपदेश करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जी माणसे अग्नी इत्यादी पदार्थांनी चालणाऱ्या रथात बसून निरनिराळ्या देशांमध्ये वायूप्रमाणे जातात. त्यांना भक्षण, भोजन, पान व चोखण यासाठी योग्य पदार्थ प्राप्त होतात. ॥ १ ॥